ईश्वर को प्राप्त करने की योग्यता
आदित्य बिड़ला समूह की अग्रणी कंपनी हिंडाल्को की मुरी औद्योगिक इकाई में आयोजित श्रीमद्भगवद्गीता विवेचना समारोह में पधारे हुए ख्यातिलब्ध युवा धर्मगुरु महामहिम श्रीभागवतानंद गुरु जी ने आज प्रारम्भिक उद्बोधन में कंपनी को कर्मचारियों तथा प्रबन्धकों को सम्बोधित किया। उन्होंने कहा कि अयोग्यता ही ईश्वर को प्राप्त करने की योग्यता है। हर प्रकार से अयोग्य व्यक्ति भगवान को शीघ्र प्राप्त कर लेता है क्योंकि उसमें किसी योग्यता का अहंकार नहीं होता।
किरातहूणान्ध्रपुलिन्दपुल्कसा
आभीरकङ्का यवनाः खसादयः ।
येऽन्ये च पापा यदुपाश्रयाश्रया
शुद्ध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः ॥
(श्रीमद्भा॰ २ । ४ । १८)
‘जिनके आश्रित भक्तोंका आश्रय लेकर किरात, हूण,आन्ध्र, पुलिन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन, खस आदि अधम जातिके लोग और इनके सिवा अन्य पापी लोग भी शुद्ध हो जाते हैं, उन जगत्प्रभु भगवान् विष्णुको नमस्कार है ।’
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई ।
धन बल परिजन गुन चतुराई ॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा ।
बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥
(मानस ३ । ३५ । ३)
उन्होंने बताया कि गुरुगृह में प्रह्लाद अपने गुरुओं की पढ़ायी विद्या पढ़ते तो थे, पर उनका चित्त उसमें लगता नहीं था। जब दोनों गुरु आश्रम के काम में लग जाते, तब प्रह्लाद अपने सहपाठी बालकों को बुला लेते। एक तो ये राजकुमार थे, दूसरे अत्यन्त नम्र तथा सबसे स्नेह करने वाले थे, अत: सब बालक खेलना छोड़कर इनके बुलाने पर इनके समीप ही एकत्र हो जाते थे।
प्रह्लाद बड़े प्रेम से उन बालकों को समझाते थे- “भाईयो! यह जनम व्यर्थ नष्ट करने योग्य नहीं है। यदि इस जीवन में भगवान को न पाया गया तो बहुत बड़ी हानि हुई। घर-द्वार, स्त्री–पुरुष, राज्य-धन आदि तो दु:ख ही देने वाले हैं। इनमें मोह करके तो नरक जाना पड़ता है। इन्द्रियों को विषयों से हटा लेने में ही सुख और शान्ति है। भगवान को पाने का साधन सबसे अच्छे रूप में इस कुमारावस्थाओं में ही हो सकता है। बड़े होने पर तो स्त्री, पुत्र, धन आदि का मोह मन को बांध लेता है और भला, वृद्धावस्था में कोई कर ही क्या सकता है।
भगवान को पाने में कोई बड़ा परिश्रम भी नहीं। वे तो हम सबके हृदय में ही रहते हैं। सब प्राणियों में वे ही भगवान हैं, अत: किसी प्राणी को कष्ट नहीं देना चाहिये। मन को सदा भगवान में ही लगाये रहना चाहिये।” सीधे-सादे सरल-चित्त दैत्य बालकों पर प्रह्लाद के उपदेश का प्रभाव पड़ता था। बार-बार सुनते-सुनते वे उस उपदेश पर चलने का प्रयत्न करने लगे।
व्याधस्याचरणं ध्रुवस्य च वयो विद्या गजेन्द्रस्य का,
का जातिर्विदुरस्य यादवपतेरुग्रस्य किं पौरुषम् ।
कुब्जायाः किमु नाम रूपमधिकं किं तत्सुदाम्नो धनं,
भक्त्या तुष्यति केवलं न च गुणैर्भक्तिप्रियो माधवः ॥
‘व्याधका कौन-सा श्रेष्ठ आचरण था ? ध्रुवकी कौन-सी बड़ी उम्र थी ? गजेन्द्रके पास कौन-सी विद्या थी ?विदुरकी कौन-सी ऊँची जाति थी ? यदुपति उग्रसेनका कौन-सा पराक्रम था ? कुब्जाका कौन-सा सुन्दर रूप था ?सुदामाके पास कौन-सा धन था ? फिर भी उन लोगोंको भगवान्की प्राप्ति हो गयी ! कारण कि भगवान्को केवल भक्ति ही प्यारी है । वे केवल भक्तिसे ही सन्तुष्ट होते हैं,आचरण, विद्या आदि गुणोंसे नहीं ।’
नालं द्विजत्वं देवत्वमृषित्वं वासुरात्मजाः ।
प्रीणनाय मुकुन्दस्य न वृत्तं न बहुज्ञता ॥
न दानं न तपो नेज्या न शौचं न व्रतानि च ।
प्रीयतेऽमलया भक्त्या हरिरन्यद् विडम्बनम् ॥
दैतेया यक्षरक्षांसि स्त्रियः शूद्रा वजौकसः ।
खगा मृगाः पापजीवाः सन्ति ह्यच्युततां गताः ॥
(श्रीमद्धा ७ । ७ । ५१-५२, ५४)
‘दैत्यबालको ! भगवान्को प्रसन्न करनेके लिये केवल ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानोंसे सम्पन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शौच और बड़े-बड़े व्रतोंका अनुष्ठान ही पर्याप्त नहीं है । भगवान् केवल निष्काम प्रेम-भक्तिसे ही प्रसन्न होते हैं । और सब तो विडम्बनामात्र है ! भगवान्की भक्तिके प्रभावसे दैत्य,यक्ष, राक्षस, स्त्रियों शूद्र, गोपालक, अहीर, पक्षी, मृग और बहुत-से पापी जीव भी भगवद्भावको प्राप्त हो गये।
महामहिम श्रीभागवतानंद गुरु जी आगामी पांच दिनों तक यहां प्रवास करेंगे तथा अपने अमृत वचनों से सनातनी जनता को कृतार्थ करेंगे।
image courtesy: shri kunjbihari pandeya