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ई-शिक्षा जुड़ी है भविष्‍य की नई संभावनाओं से, आईपीएल से भी जुड़े इसके प्रायोजक

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यह अनायास ही नहीं है कि इस महामारी में जब अधिकांश गतिविधियां बंद या धीमी हो गई हैं, उस समय भी आइपीएल का आयोजन दूर देश ले जाकर खाली दर्शक दीर्घा के बीच हो रहा है। एक वजह तो यह भी हो सकती है कि आयोजक हर हाल में खेल प्रेमियों को उनकी खुराक मुहैया कराना चाह रहे हों, किंतु इस उदात्त दृष्टि के इतर एक व्यापक आर्थिक पक्ष भी है जिसने इसके आयोजन को अपरिहार्य बना दिया। यह आर्थिक महाकुंभ इस बार भारत के बदलते शैक्षिक परिदृश्य को भी इंगित कर रहा है। पहली नजर में यह बात अटपटी लग सकती है कि आखिर खेल के मैदान का पढ़ाई से क्या वास्ता! लेकिन ऐसा है। अगर इस बार का आइपीएल देखें तो इसके दो मुख्य प्रायोजक शिक्षा क्षेत्र से जुड़े हैं। इतने महंगे खेल आयोजन में प्रायोजक बनने वाले ये उद्यम डिजिटल शिक्षा से जुड़े हैं।

शिक्षा की इस बदलती दुनिया के बारे में सबकी राय एक हो ऐसा नहीं है और न ही सब पर इसका एक जैसा प्रभाव पड़ेगा। शिक्षा जगत से जुड़े विद्वान और कार्यकर्ता लगातार डिजिटल शिक्षा को संशय की निगाह से देखते रहे हैं। इसके पीछे मुख्य दो वजहें बताई जाती हैं, एक तो साधन-अंतराल का और दूसरा स्वयं शिक्षा के उद्देश्य के बदल जाने का। साधन अंतराल यानी डिजिटल शिक्षा के लिए जो भौतिक अवसंरचना चाहिए, वह सभी को समान रूप से सुलभ नहीं है। उच्च आíथक हैसियत वाले परिवारों के बच्चे तो इस बदलाव को आसानी से अपना लेंगे, लेकिन समाज का अपेक्षाकृत कमजोर तबका, जिनके लिए लैपटॉप और इंटरनेट अभी भी एक अप्राप्य वस्तु है, उनके लिए शिक्षा पाना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे में वर्ग आधारित शिक्षा अंतराल और बढ़ जाएगा, जो व्यापक असंतुलन पैदा करेगा। दूसरी वजह अधिक गहरी है।

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दरअसल, शिक्षा महज आर्थिक उपार्जन के लिए किसी कौशल को सीखने का एक जरिया भर नहीं है, बल्कि यह किसी व्यक्ति को अपने समाज और परिवेश को समझने का एक अवसर भी है। साथ ही यह सीखने की एक निरंतर प्रक्रिया के तहत व्यक्तित्व विकास का अवसर भी होता है। बच्चा सिर्फ शिक्षक की बातों या किताबों से ही नहीं सीखता, बल्कि आपसी सहचरी से भी सीखता है। समूह में शिक्षा प्राप्त करने से विद्यार्थी का समाजीकरण कहीं अधिक विस्तार से होता है। शिक्षा का डिजिटल रूप इस मूल उद्देश्य के ही विपरीत है, क्योंकि यह परिवेश और समूह की अवहेलना करता है। इसी बात को लेकर डिजिटल शिक्षा के प्रति संशय व्यक्त किया जाता है। फिर आखिर क्या वजह है कि इस शिक्षा का विस्तार हो रहा है? क्या समाज शिक्षा की इस बुनियादी बात को नहीं समझ रहा?

इसे समझने के लिए एक दूसरी तस्वीर देखनी भी जरूरी है। दरअसल डिजिटल शिक्षा के उद्यम अपने स्वरूप में नए नहीं हैं, बल्कि इन्होंने पहले से चल रहे समानांतर शैक्षिक स्वरूप को बड़ा आकार दे दिया है और उसके ढांचे में तकनीक जनित परिवर्तन कर दिया है। शिक्षा के उद्देश्य से जुड़े जिस दर्शन की चर्चा की गई है, वह औपचारिक शिक्षा के लिए है। अर्थात स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा, जिनका उद्देश्य एक वृहद लक्ष्य की प्राप्ति होती है, और जो सिर्फ किसी परीक्षा को पास कर अच्छे अंक पा लेने तथा किसी खास कौशल को अर्जति करने तक सीमित नहीं रहता। लेकिन पिछले कुछ दशकों में इसके समानांतर शिक्षा का एक समानांतर ढांचा भी विकसित होता रहा है जो किसी खास उद्देश्य की प्राप्ति में विद्यार्थियों सहायता करते हैं।

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इसमें सीमित विद्याíथयों को पढ़ाने वाले एकल ट्यूशनकर्ता से लेकर बड़े बड़े कोचिंग संस्थान हैं। हमारा समाज इस व्यवस्था पर इतना निर्भर हो चुका है कि यहां से पीछे लौटना असंभव है। स्कूली बच्चों के लिए ट्यूशन और इंजीनियरिंग से लेकर आइएएस तक के लिए कोचिंग अब एक आवश्यकता बन गई है, जिसके प्रति नकार का कोई समाधान नहीं है। तो डिजिटल शिक्षा के ये उद्यम इसी क्षेत्र को संबोधित हैं। अर्थात ये औपचारिक शिक्षा के विकल्प के रूप में नहीं, बल्कि इसके अनुषंगी के रूप में विस्तृत हो रहे हैं। इसलिए औपचारिक शिक्षा के मूल्य से इसे देखना एक किस्म की ज्यादती है। हां, औपचारिक शिक्षा में इस प्रयोग को संशय से देखने की ठोस वजहें हैं। यही वजह है कि इसे व्यापक सामाजिक सहमति भी प्राप्त हो रही है।

वस्तुत: डिजिटल शिक्षा ने साधन संपन्न लोगों की सुविधाएं बढ़ाई ही हैं, इसलिए ऐसी कोई वजह नहीं दिखती कि समाज इसके प्रति उपेक्षा का भाव दिखाएगा। एक तो इससे लोगों के पास विकल्प बढ़ गए और वो क्षेत्रीय आपूíत पर ही निर्भर रहने के लिए बाध्य नहीं रहे। दूसरे, अब इस बाध्यता से भी राहत मिल गई कि सिर्फ किसी खास परीक्षा की तैयारी के लिए दूर शहर जाया जाए। इस प्रकार यह आíथक रूप से लाभकारी स्थिति भी है। सबसे बड़ी बात यह है कि समाज की इस माध्यम के प्रति सहजता वैसे तमाम प्रतिभाशाली युवाओं के लिए नया अवसर लाएगी जो बेहतर अध्यापन कौशल तो रखते हैं, लेकिन उन्हें सार्थक मंच नहीं मिल पा रहा था। तकनीक की दुनिया ने अब यह दूरी मिटा दी है। एक छोटे से निवेश से एक संभावनाशील दुनिया में कदम रखा जा सकता है, और लोग रख भी रहे हैं। शिक्षा में उभरते स्टार्ट-अप इसके प्रमाण हैं।

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