षड्यंत्र
शंकराचार्य परम्परा सनातन धर्म की सबसे प्राचीन तथा उच्चस्तरीय व्यास गुरु परम्परा है। द्वारिका पीठ के शंकराचार्य स्वामी श्री स्वरूपानंद
सरस्वती एवं ज्योतिर्मठ पर अपना अधिकार बताने वाले वासुदेवानंद सरस्वती के मध्य उठे अधिकार विवाद को लेकर न्यायालय के निर्णय पर आर्यावर्त सनातन वाहिनी “धर्मराज” के राष्ट्रीय महानिदेशक विद्यामार्तण्ड श्रीभागवतानंद गुरु ने अपना मंतव्य स्पष्ट किया है।
जारी किये गए बयान के अनुसार संगठन के केंद्रीय मीडिया प्रभारी एवं श्रीभागवतानंद गुरु के प्रतिनिधि शिष्य ब्रजेश पांडेय ने बताया कि गुरुजी ने श्री आद्यशंकराचार्य विरचित “मठाम्नाय महानुशासनम्” के नियमानुसार एवं पुरी पीठाधीश्वर श्रीमज्जगदगुरु शंकराचार्य के उस बयान का समर्थन किया है जिसके अनुसार एक शांकर पीठ पर एक ही सर्वमान्य शंकराचार्य हो सकते हैं।
इस संदर्भ में शांकर पीठों की आचार संहिता से प्रमाण देते हुए उन्होंने बताया कि
*परिव्राड् चार्यमर्यादां मामकीनां यथाविधिः | चतु: पीठाधिगां सत्तां प्रयुञ्ज्याच्च पृथक् -पृथक् ||*
अर्थ : परिव्राजक (संन्यासी) (का कर्त्तव्य है कि वह ) मेरी (श्री आद्य शंकराचार्य ) चार पीठों से सम्बद्ध सत्ता का तथा तत्सम्बन्धी श्रेष्ठ मर्यादाओं का यथाविधिपूर्वक और पृथक् -पृथक् प्रयोग करे|
*परिव्राडार्यमर्यादो मामकीनां यथाविधिः | चतुष्पीठाधिगां सत्तां प्रयुञ्ज्याच्च पृथक् -पृथक् ||*
अर्थ : मर्यादाओं का शुद्ध रूप से पालन करने वाला एक संन्यासी मेरी (अर्थात् मुझ आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित ) चारों पीठों की सम्बद्ध सत्ता का नियमानुसार (प्रत्येक मठ के लिए निर्धारित विधानों के अनुसार ) अलग-अलग प्रयोग करे |
श्रीभागवतानंद गुरु ने यह भी कहा है कि एक संन्यासी का यह दायित्व है कि वह श्री आद्य शंकराचार्य की प्रवर्तित सत्ता का उसकी श्रेष्ठ मर्यादाओं का उसके ही नियमों से और अलग -अलग प्रयोग करे और दूसरा श्लोक कहता है कि मर्यादाओं का पालन करने वाले एक संन्यासी का यह दायित्व है कि वह श्री आद्य शंकराचार्य की प्रवर्तित सत्ता का उसकी श्रेष्ठ मर्यादाओं का उसके ही नियमों से और अलग -अलग प्रयोग करे |
श्रीभागवतानंद गुरु ने इस बात पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा, कि वोट बैंक तथा नोटों के लालच में सरकार एवं न्यायपालिका इसपर कुचक्रपूर्ण व्यवहार करते हुए विश्व के सनातन विरोधी शक्तियों का साथ देते हुए मान्य शंकराचार्य परम्परा के अस्तित्व तथा मर्यादा के हनन हेतु षड्यंत्र कर रही है।
आम्नायाः कथिता ह्येते यतीनाञ्च पृथक् -पृथक् | ते सर्वे चतुराचार्याः नियोगेन यथाक्रमम् || (-महानुशा०)
वस्तुतः मठाम्नाय श्रुति ने जिस सत्ता का गोत्र-साम्प्रदायादि विभागपूर्वक पृथक् -पृथक् रूप से ही उपदेश किया हो , दिशाएं पृथक्- पृथक् बाँट दी हों, देवता बाँट दिए , वेद बाँट दिया , इस भेद का ही यथावत् परिपालन करने वाले वेदमार्गप्रतिष्ठापक भगवान् श्री आद्य शंकराचार्य की परमपवित्र वाणी उन श्रौतवचनों का उल्लंघन भला कैसे कर सकती है ? श्री आद्य शंकराचार्य भगवान् ने श्रुति के भेद को शिरोधार्य करते हुए तदनुसार ही अपने चार शिष्यों को चारों दिशाओं में नियोजित किया | यह ऐतिहासिक सत्य इतिहास की थोड़ी -बहुत भी जानकारी रखने वाले सामान्य से सामान्य व्यक्ति से भी छिपा नहीं है |
धर्मपीठों में न्यायालय के हस्तक्षेप के विषय में महामहिम श्रीगुरु ने कोर्ट के निर्णय तथा भूमिका पर भी सवाल खड़े किये हैं। उन्होंने कहा कि सनातनी मर्यादाओं का पालन नहीं करने वाले लोग स्वयं को संन्यासी तो क्या, हिन्दू भी नहीं कह सकते। संन्यास की अवस्था नियमित संयमन एवं विरक्ति से ही प्राप्त की जाती है तथा शास्त्रीय मर्यादा पूर्वक ही उसका पालन करना एक धर्माधिकारी का कर्त्तव्य है |
महामहिम श्रीभागवतानंद गुरु ने आगे कहा है कि कोर्ट को धर्मनिर्णय का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि वह अर्वाचीन एवं भ्रष्टाचार में लिप्त एक पक्षपाती व्यवस्था है। संन्यासियों द्वारा धर्म निर्णय हेतु कोर्ट की शरण लेना वस्तुतः श्री आद्य शंकराचार्य द्वारा संस्थापित परम्परा की अवहेलना है | विद्वानों की सन्निधि में शास्त्रार्थ पूर्वक संशयादि निवारण करना -यही न्यायशास्त्रसम्मत दोनों वादियों का कर्त्तव्य है |
धर्म निर्णय का अधिकार न होने से उसके सम्बन्ध में कोर्ट के किसी भी प्रकार के निर्णय का कोई महत्व नहीं है |
वैदिक- परम्परा के अनुसार धर्म का निर्णय करने का अधिकार केवल दो द्वारों को होता है –
(१) देवद्वार (२) राजद्वार
देवद्वार का अभिप्राय होता है देवताओं का द्वार – इसके अंतर्गत लोकदेवता आदि का परिगणन होता है , वेद के तत्त्व को जानने वाले भूदेव ब्राह्मण भी जो धर्म निर्णय देते हैं , उनका अंतर्भाव इसी के अंतर्गत होता है |
तथा राजद्वार शुद्ध कुलीन सूर्यादि वंशी क्षत्रियों के अंतर्गत आता है , ईदृश राजन्य वर्ग ही शास्त्रीय दृष्टि से सनातनधर्मावलम्बियों के लिए प्रशासक की उपाधि के योग्य मान्य है , इसी परम्परा का अनुवर्तन करना प्रत्येक सनातन धर्मावलम्बी का कर्त्तव्य है | उक्त राजन्य वर्ग की अध्यक्षता में ही वाद प्रतिवाद आदि के माध्यम से जो निर्णय प्राप्त होता है , उस राजाज्ञा को नारायण की ही आज्ञा के सामान महत्व प्रदान करते हुए सनातन धर्मावलम्बी जन स्वीकार करते हैं |
श्रीभागवतानंद गुरु ने इस बात पर जोर दिया है कि तथाकथित कोर्ट न तो देवद्वार के ही अंतर्गत आता है न राजद्वार के ही अंतर्गत है, अपितु यह कोर्ट तो हमारी वैदिकी परम्परा के ही विरुद्ध है, स्वयं इसके औचित्य पर ही धर्म निर्णय की आज महती आवश्यकता सनातनी धर्माचार्यों के लिए कर्त्तव्य है | यह न तो देवद्वार के अंतर्गत आती है ना ही राजद्वार के अंतर्गत | वैदिकी दृष्टि से लोकतान्त्रिक प्रशासन का कोई शास्त्रीय महत्व नहीं है , मन्वादि आर्ष शास्त्रों के अनुकूल प्रशासन राजतन्त्र ही हैं , लोकतंत्र नहीं | यत्र तत्र महाभारत आदि में गणतंत्र का भी वर्णन है लेकिन वह अत्यंत विशुद्ध त्यागपूर्ण सर्वहितकारी नियमों पर आधारित व्यवस्था है। ऐसे में सैद्धान्तिक दृष्टि से लोकतन्त्र के आधुनिक स्वरूप का कोई धर्मसम्मत मान्यत्व ही नहीं है।
इस विवाद को लेकर देश भर के सनातनी धर्माधिकारियों ने अपने अपने महत्वपूर्ण मंतव्य रखने शुरू किये हैं। दो आश्रमों का यह विवाद बढ़ते बढ़ते सनातन धर्म की सबसे प्राचीन एवं सर्वोच्च परंपरा के लिए एक गंभीर समस्या हो गयी है। सनातन
धर्म के प्रखर धर्मगुरुओं में से गिने जाने वाले विद्यामार्तण्ड महामहिम श्रीभागवतानंद गुरु ने अपने बयान में यह भी कहा है कि शंकराचार्य कोई सामान्य पद या मठाधीश नहीं है, यह सनातन का सर्वोच्च गुरूपीठ है। इसपर विवाद निंदनीय है तथा विरक्त वेश धारण करने वाले कालनेमि जनों का दमन अति शीघ्र होना चाहिए। इस संदर्भ में उन्होंने पुरी पीठ के शंकराचार्य स्वामी श्री निश्चलानंद सरस्वती जी के निष्पक्ष एवं धर्मसम्मत निणर्य का स्वागत एवं समादर करते हुए यह कहा कि इस विषय में पुरी पीठ के सुझाव को मानना ही सनातन के लिये हितकारी होगा।
एक पीठ, एक आचार्य के सिद्धांत को समर्थन देते हुए महामहिम ने यह कहा कि यह एक धार्मिक आपातकाल है, जिसमें लिया गया निर्णय भवितव्य समाज के लिए उदाहरण बनेगा तथा इससे ही हमारी पीढ़ियों का भविष्य बनने या बिगड़ने की सम्भावना है। अतः न्यायालय, सरकार तथा धर्माधिकारियों को निष्पक्ष होकर स्वार्थरहित एवं धर्मसम्मत निर्णय को प्रस्तावित करना चाहिए।