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भगवान् शंकर जैसे दरिद्र देवता प्रसन्न हो भी जाएं तो आखिर क्या दे सकते हैं ?

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क्या-क्या आभूषण – श्रृंगार रखते हैं वे आपने पास , कैसे वे रहते हैं ?

“महोक्षः खट्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः।
कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां।
न हि स्वात्मारामं विषयमृगतृष्णा भ्रमयति।।”
【शिवमहिम्नस्तोत्र ८】

हे वरद ! यद्यपि आप परिपूर्ण परमेश्वर हैं, तथापि महोक्ष (बूढ़ा बैल),
खट्वाङ्ग (खाट का अवयव= शस्त्रविशेष, कापालिकों में प्रसिद्ध है),
परशु (टङ्क= पाषाण तोड़ने का साधन या कुठार),
अजिन (चर्म),
भस्म,
फणिन: (अनेक सर्प) और कपाल (मनुष्य के सिर की खोपरी) , ये सात वस्तु आपके तंत्रोपकरण (कुटुंबधारण के साधन) हैं ।
यह तो हुआ उनका श्रृंगार , उनकी रहनी ।

अब “वे प्रसन्न होंगे तो क्या दे सकते हैं ?”

अब “वे प्रसन्न होंगे तो क्या दे सकते हैं ?” इसे श्रीमधुसूदन सरस्वती महाभाग ने लग्भग पांच सौ वर्ष पहले “शिवमहिम्न-स्तोत्र” पर लिखी विद्वत्तापूर्ण अपनी संस्कृत टीका में उपरोक्त श्लोक की ही व्याख्या में प्रतिपादन किया है , उसका अनुवाद मात्र करता हूँ ===

“देवता लोग तो आपकी सेवा से आपको संतुष्ट करके आपके भ्रूविक्षेपमात्र (भौंहों के इशारे भर) से दी गई उस असाधारणी संपत्ति को धारण कर रहे हैं ।

आप तो अतिदरिद्र हैं, किन्तु आपके भक्त-देवता आपके प्रसाद से समृद्ध (धन-धान्य-ऐश्वर्यादि में आपसे भी अधिक सम्पन्न) हैं —– इस विरोध को ‘तु’ शब्द प्रकट कर रहा है ; क्योंकि जो औरों को धनवान बनाता है, वह उनकी अपेक्षा अधिक धनवान होता है —- यह बात लोक में प्रसिद्ध ही है ।

तो फिर आप ऐसे होकर भी स्वयं महोक्षादि परिवार क्यों रखते हैं ?

तो फिर आप ऐसे होकर भी स्वयं महोक्षादि परिवार क्यों रखते हैं ? तो उत्तर है ~~

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जो पुरुष चिदानन्दघन स्वात्मा में रमण करते हैं , उनको विषय-मृगतृष्णा भ्रमा (मोह में डाल) नहीं सकती , जैसे सूर्य की किरणरूप मृगतृष्णा , जल से विरुद्ध स्वभाव वाली होकर भी भ्रान्ति से जलमयी सी भासती है , ऐसे ही रूप-रस-गन्ध-स्पर्श आदि विषय दुःखरूप होकर भी भ्रांति से सुखरूप होकर भासते हैं ——- यह रूपक का अर्थ है ।

जब जीव भी स्वात्माराम होकर विषयों में आसक्त नहीं होता , तब नित्यमुक्त – ईश्वर विषयों में आसक्त नहीं होता है —– इस बात के कहने की तो कोई आवश्यकता ही नहीं है— यह अभिप्राय है ।

इसलिए वृषभारूढा (बैल पर चढ़ी हुई) ,
खट्वांग-परशु-फणि-कपाल आदि से आलंकृता , चतुर्भुजा ,
चर्मवसना (गजचर्म के वस्त्र वाली) ,
भस्माङ्गरागा (चिता का भस्म है अंगराग जिसका, ऐसी) अनेक प्रकार के भूषणों वाली महादेवजी की मूर्ति की (गुरूपदेश द्वारा जानकर) स्तुति आदि से आराधना करनी चाहिए —– यह अर्थ है ।

वस्तुतः तो ‘पुरूष-प्रधान (माया)-महद्-अहंकार-तन्मात्रा-इन्द्रिय-भूत’ —- यह सातों महोक्ष आदि रूप से गुप्त होकर भगवान् महादेवजी की उपासना कर रहे हैं —— यह बात शैवशास्त्र में प्रसिद्ध है ।

जगत् ही जिसका कुटुम्ब है , ऐसे उस परमात्मा का सातों तत्त्व ही उपकरण हैं .

अजेश स्वरूप ब्रह्मचारी की लेखनी से।                                                                                            सावन विशेषांक

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