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महिलाओं के लिए मेट्रो शहरों में अकेले संघर्ष करना और मंजिल के लिए दौड़ लगाना बेहद चुनौतीपूर्ण

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याद आता है वह दिन, जब हम अपनी बुआ की लड़की का पीजी बदलवाने के लिए दिल्ली के मुखर्जी नगर गए थे। ढूंढ़ते हुए उसके घर पहुंचे तो एक कोठी थी। उसमें एक कमरे के भीतर दूसरा कमरा था और दूसरे के भीतर एक स्टोरनुमा दड़बा, जिसमें हवा का एक झोंका तक आने का कोई इंतजाम नहीं था। उस सीलननुमा कमरे को देखकर मैंने पूछा कैसे रहती हो तुम यहां? वह बोली, समय काटना है अभी तो। जब कुछ बन जाऊंगी तो इस जगह को याद रखूंगी। वह सिविल सेवा के लिए कोचिंग ले रही थी। हमने उसका कमरा बदलवाया। हवादार पीजी तो मिला, लेकिन वहां भी वह टिक न सकी, क्योंकि पीजी वाली महिला के नियम सख्त थे, गिनकर रोटी देतीं व अपने बच्चे पढ़ाने के लिए भेज देतीं जिससे उसकी पढ़ाई में खलल पड़ता। मुश्किलों के दौर में भी वह डटी रहीं, आत्मविश्वास बनाए रखा और आज दिल्ली विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर है।

संघर्ष ने बदली सोच: टीवी एक्टर हैं श्रद्धा मुसले। हालांकि उन्होंने एक्टर बनने के बारे में कभी सोचा नहीं था। वह तो मास मीडिया में अपना स्नातक पूरा करने मुंबई आई थीं। स्लीवलेस कपड़े नहीं पहनती थीं। हाई हील से डर लगता था और चेहरे पर मेकअप बर्दाश्त नहीं होता था। एक होटल में भी नौकरी की, फिटनेस प्रोफेशनल भी बनीं, लेकिन मन वहां भी नहीं लगा। एक दिन फैसला किया कि एक्टिंग में अपनी किस्मत आजमाऊंगी। श्रद्धा कहती हैं, रोज सुबह ऑडिशंस के लिए निकल जाती। दूर-दूर जाना काफी थका देने वाला होता था। अपनी लंबाई को लेकर भी कांफिडेंट नहीं थी मैं। कठिनाइयां कम नहीं रहीं संघर्ष के दिनों में, लेकिन उसी ने मेरी सोच को बदल दिया। मैंने जान लिया कि सफलता के लिए कितनी कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। जब शो कहानी घर घर की में पहला ब्रेक मिला तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। बेशक यह निगेटिव रोल था, लेकिन उस क्षण को मैं कभी भूल नहीं पाऊंगी। सीआइडी में भी डॉ. तारिका की भूमिका काफी सराही गई।

पैसे की भी समस्या आती है: छोटे शहर से आई लड़कियों को तो बड़े शहरों की संस्कृति समझने में ही समय लग जाता है। काजल को लगता था कि वह बाहर जाकर पढ़ें। अपना अच्छा कॅरियर बनाकर माता-पिता को गर्व महसूस कराएं। इसलिए वह आगे की पढ़ाई के लिए आगरा के एक छोटे कस्बे एतमादपुर से दिल्ली आ गईं। काजल के पापा ने भी उन्हें प्रोत्साहित किया। इससे पहले वह कभी दस दिन के लिए भी बाहर नहीं गई थीं। काजल कहती हैं, मुझे यहां की संस्कृति के बारे में बिल्कुल पता नहीं था। यहां के लोगों के विचार और सोच बहुत अलग थी। मेरे कॉलेज के साथी हाईप्रोफाइल थे। उनके साथ बहुत कुछ सहना पड़ा। लड़कियों के पीजी में भी काफी मुद्दे होते हैं। वे एक-दूसरे को सपोर्ट नहीं करती हैं। शुरू में पैसे की भी बहुत समस्या थी। घर से सीमित पैसे आते थे, उसी में काम चलाना होता था। कॉलेज खत्म होने से पहले जॉब ढूंढ़नी थी, क्योंकि मैंने स्टडी लोन लिया था। इसलिए किस्त शुरू होने से पहले ही आत्मनिर्भर होना था। ट्रेनी से शुरू किया, आठ हजार रुपये तनख्वाह मिली जिसमें घर का किराया देना था और खाना-पीना शामिल था। शुरू में तो लगा कि नहीं कर पाऊंगी। छोड़कर चली जाती हूं, बहुत डर लगता था। लड़कियों के ग्रुप बहुत परेशान करते थे, लेकिन हिम्मत बनाए रखी और आज अकेले फ्लैट में रहकर आराम से नौकरी कर रही हूं।

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क्या लड़कों से मिलोगी: आज की लड़कियां इन परिस्थितियों से जूझने का जज्बा रखती हैं और अपने सपने पूरे करने के लिए घर से बाहर निकलकर भीड़ में अपनी जगह बनाने की लगातार कोशिश करती हैं। मुंबई में अपने शुरुआती दिनों के संघर्ष के बारे में हाल ही में एक सेलिब्रिटी ने खुलकर बोलते हुए कहा कि उन्हेंं अकेली लड़की होने के कारण किराए का घर नहीं मिला, मकान मालिक पूछते कि क्या लड़कों से मिलोगी? इनकी तरह ही हजारों की तादाद में लड़कियां गांवों से शहर या छोटे शहर से मेट्रो शहरों में रहने आती हैं। मुश्किल हालात से गुजरती हैं वे, कड़वा रहता है उनका अनुभव, डरती हैं, लेकिन फिर भी हिम्मत दिखाती हैं वे। दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य पढ़ाने वाली और एनिमल एक्टिविस्ट गीता शेषमणि कहती हैं कि चाहे कोई लड़की कंपनी की मैनेजर बने, चाहे वह घर में अचार बनाकर बेचे, लेकिन उसका र्आिथक रूप से आत्मनिर्भर होना ही उसे सशक्त करता है। उसे तो हर दिन हिम्मत चाहिए। हक के लिए अपने पांव पर खड़ा होना है उसे। अपना आदर करवाना है। जब समाज उसका आदर करने लगेगा और अपने सोचने का तरीका बदल लेगा तभी वह सशक्त कहलाएगी। लड़कियों को तो रोजमर्रा की जिंदगी में बहादुर बनना है।

जमीन-आसमान का फर्क: पेंटर नेहा पंकज कहती हैं कि जब पहली बार मैं दिल्ली की आर्ट गैलरीज गई तो खुद को सबसे अलग-थलग महसूस किया। दरअसल, मैं राजस्थान से आई थी। वहां और यहां के माहौल में जमीन-आसमान का फर्क है। वहां आपकी कला को लोग जानना और पहचानना चाहते हैं। यहां सबसे पहले आपकी कला की बाजार में कीमत क्या होगी, यह जानने की कोशिश की जाती है। यहां लोगों की सोच व्यावसायिक है। कभी-कभी तो मैं भावनात्मक रूप से आहत भी होती थी। हमारे यहां लोग बहुत साथ देते हैं। वहां कलाकार अपनी मानसिक संतुष्टि के लिए काम करते हैं। यहां भी कलाकार ऐसा ही करते हैं, लेकिन बाजार की मांग पर भी पूरा ध्यान होता है। नेहा कहती हैं, बचपन से ही मेरे अंदर जज्बा था पेंटर बनने का, जो हरदम मुझे कुछ नया, कुछ अलग करने के लिए प्रेरित करता रहता था। मुझे दिल्ली में जो परेशानियां आईं, उनसे मैंने सिर्फ अपने आत्मविश्वास के दम पर लड़ा। दूसरी बात कि अगर आपके साथ फैमिली सपोर्ट हो तो चाहे फाइनेंशियल स्तर पर हो या फिर हौसला अफजाई के स्तर पर आप आगे बढ़ते जाएंगे।

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डगमगाता था आत्मविश्वास: टीवी कलाकार नेहा सरगम जब काम के सिलसिले में मुंबई आईं तो ज्यादातर लोग कहते कि अरे तुम बिहारी हो, पर लगती नहीं हो। क्या तुम ये कर पाओगी? ऐसे शब्दों ने शुरुआत में उन्हें बहुत परेशान किया। उनका आत्मविश्वास डगमगाने लगता था, लेकिन कभी भी ऐसी बात बोलने वाले लोगों के सामने कमजोर नहीं पड़ीं। नेहा कहती हैं, आज भी जब कोई व्यक्ति मुझसे ऐसा कहता है तो मैं उसे समझाने की कोशिश करती हूं और अपने राज्य बिहार की वस्तुस्थिति बताने की कोशिश करती हूं। मुझे एक्टिंग करने का अवसर मिला, लेकिन मैं अक्सर खुद को इनसिक्योर फील करती थी। मुझे यह आशंका होने लगती थी कि आगे काम मिल पाएगा या नहीं। वित्तीय अस्थिरता का खौफ हर स्ट्रगलर के मन में होता है। मैं लड़कियों से कहना चाहूंगी कि पूरे आत्मविश्वास के साथ कदम बढ़ाएं। गल्र्स हमेशा ये सोचें कि किसी भी विषम परिस्थिति में उन्हें अपना साहस नहीं खोना है, बल्कि फाइट करनी है।

सही-गलत बताने वाला कोई नहीं: अभिनेत्री प्रणति राय प्रकाश ने बताया कि मैं पटना से मुंबई पढ़ने और मॉडल-एक्टर बनने आई थी और यहां के रहन-सहन से बिल्कुल अनजान थी। जिस इंडस्ट्री को मैं जानती भी नहीं थी, वहां अपनी पहचान बनानी थी। यहां मैं बिल्कुल अकेली थी। कोई मुझे नहीं जानता था। जब तक कुछ बन न जाओ, यहां कोई पूछता ही नहीं है। मुझे यह भी नहीं पता था कि कौन से एक्टिंग स्कूल अच्छे हैं। मुझे कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। मेरे पास खुद अनुभव करने और सीखने के अलावा कोई चारा नहीं था। खाना भी खुद ही बनाना था। अपने पैसे और लाइफस्टाइल मैनेज करना था। ऑडिशंस में जाते समय कुछ भी नहीं खाती थी। ढाई घंटे ट्रैवल करती थी, जो लड़कियां फिल्म इंडस्ट्री में आने का सपना देख रही हैं उनसे कहना चाहती हूं कि अच्छी कंपनी और माहौल में रहें साथ ही अपने काम पर ध्यान दें। ऐसा न सोचें कि ग्लैमर इंडस्ट्री है तो मौज रहेगी। यहां कोई सही-गलत बताने वाला नहीं है।

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छत मुश्किल से मिलती है: टीवी एक्टर कनिका माहेश्वरी ने बताया कि मैं मारवाड़ी परिवार से थी। मेरा सबसे पहला संघर्ष तो अपने पैरेंट्स को एक्टिंग जैसे काम के लिए मनाना था। मुंबई में रहना, खाना-पीना बहुत मुश्किल था। सबसे ज्यादा कठिन रहना है। यहां सिंगल लोगों को घर नहीं मिलता। छत बहुत मुश्किल से मिलती है। मुंबई की सड़कों और वड़ा पाव ने जीना सिखा दिया। पैसों की तंगी थी साथ ही घर से भी सीमित पैसे मिलते थे। अगर आपमें दृढ़ता है तो आप इन चुनौतियों से निपट सकती हैं। इन दिनों शो क्यों उत्थे दिल छोड़ आए में नजर आ रही हूं। इसमें ब्लैक कैरेक्टर है मेरा।

काफी संघर्ष किया कंगना ने: हिमाचल के एक छोटे से गांव से मुंबई आई कंगना रनोट कई हॉस्टल में लड़कियों के साथ रहीं। उन्होंने घरवालों के विरुद्ध जाकर बहुत कम उम्र में अपना घर छोड़ दिया और अकेले ही मुंबई चली आईं। यहां आकर बहुत दिनों तक उन्होंने रोटी और अचार खाकर गुजारा किया। गैंगस्टर फिल्म से साल 2005 में बॉलीवुड डेब्यू करने वाली कंगना का एक्टिंग कॅरियर मुश्किलों से भरा रहा है। पहले मॉडलिंग और बाद में थिएटर में उन्होंने अपनी किस्मत आजमाई। जब उनको थिएटर डायरेक्टर अरविंद गौड़ से ट्रेनिंग मिली तो उन्होंने बॉलीवुड में डेब्यू किया। वह कहती हैं कि जब गैंगस्टर फिल्म में काम किया था और एक पुरस्कार समारोह का हिस्सा बनने वाली थी तब मेरे पास इसमें जाने लायक कपड़े नहीं थे और न ही खरीदने के पैसे। ऐसे में मेरे एक डिजाइनर दोस्त रिक रॉय ने मेरी मदद की और अपने डिजाइन किए कपड़े दिए।

 

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