कानपुर: कानपुर की एतिहासिक धरती पर धरोहरों की लंबी फेहरिस्त है, इन्हीं में से एक नवाब दूल्हा महल है। मोहर्रम का महीना आते ही इस महल का इतिहास ताजा हो जाता है। यही वो महल है, जहां आज भी कर्बला की ईंट रखी है और सबसे खास जरी का जुलूस है। हर वर्ष सबसे पहले इसी महल के अजाखाने में जरी रख मोहर्रम का आगाज होता है। कर्बला की ईंट की जियारत करने और मन्नते मांगने के लिए दूर-दूर से अकीदतमंद आते हैं
1832 में मशहूर शायर मीर अनीस के लिए बनवाया गया मिंबर (आसन) भी इमाम बारगाह नवाब दूल्हा की अहमितय की गवाही दे रहा है। शहर के पटकापुर स्थित नवाब दूल्हा महल का निर्माण सन् 1832 में हुआ था। नवाब दूल्हा के नाम से मशहूर अली हुसैन ने इसका निर्माण करवाया था। उन्होंने महल के अंदर अजाखाना बनवाया था, जहां से मोहर्रम पर इमाम हुसैन व उनके साथियों की शहादत का गम मनाया जाता था। यह सिलसिला तब से आजतक कायम है। नवाब दूल्हार महल का निर्माण 1832 में हुआ था मोहर्रम पर यहां जरी का जुलूस हाथी घोड़ों व ऊंटों के साथ पहुंचता था और यौम-ए-आशूरा को कर्बला की ईंट सुर्ख हो जाती है।
नवाब दूल्हा, मौतमुद्दौला नवाब आगामीर के दामाद थे। इसलिए उनको नवाब दूल्हा के नाम से पुकारा जाता था। नवाब आगामीर का मकबरा ग्वालटोली में है। उस दौर में मोहर्रम का आगाज शिवाला से उठकर नवाब दूल्हा के अजाखाने तक जरी के आने के साथ साथ होता था। जरी के साथ निकलने वाले जुलूस में ऊंट, घोड़ें और हाथी भी होते थे। अजाखाने (गम मनाने की जगह) में जरी स्थापित होने के साथ ही मजलिस और मातम का सिलसिला शुरु हो जाता था, जो परंपरा आज भी कायम है। इसे नवाब दूल्हा की छठी पीढ़ी अंजाम दे रही है। नवाब दूल्हा महल इमाम बारगाह में कर्बला से लाई गई ईंट हैं, जिसे शीशे के बक्से में रखा गया है। मोहर्रम में अकीदतमंद ईंट की जियारत करने आते हैं और मन्नत मांगते हैं। मन्नत पूरी होने के लिए ईंट के बक्से पर धागा (कलावा) बांधा जाता है। जिनकी मन्नत पूरी हो जाती है वे हजरत इमाम हुसैन की नजर दिलवाते हैं। नवाब हुसैन बताते कि मिट्टी की बनी यह ईंट यौम ए आशूरा (मोहर्रम की दस तारीख) को सुर्ख हो जाती है। इसी दिन हजरत इमाम हुसैन की शहादत हुई थी। इस ईंट को तकरीबन सौ साल पहले नवाब मुस्तफा हुसैन कर्बला (ईराक) से लेकर आए थे। मोहर्रम में ईंट की जियारत करने तथा मुरादे मांगने के लिए दूर दूर से अकीदतमंद आते हैं।नवाब दूल्हा इमाम बारगाह में मशहूर शायर मीर अनीस के लिए खास तौर पर बनवाया गया ऐतिहासिक मिंबर (आसन) भी है। इसी मिंबर पर बैठ कर मर्सिया (इमाम हुसैन की याद में गमी के शेर) पढ़ा करते थे। मीर अनीस का जन्म 1803 में तथा इंतकाल 1874 में हुआ। वे नवाब दूल्हा के बुलावे पर मोहर्रम में आते थे। इस मिंबर पर उनके बाद कई मशहूर हुसैनी शायरों ने इमाम हुसैन की अकीदत में कलाम पेश किए हैं और हुसैनी वक्ताओं ने तकरीर की है।