धर्म के मुख्यतः दो आयाम
आदित्य बिड़ला समूह की अग्रणी कंपनी हिंडाल्को की मुरी औद्योगिक इकाई में आयोजित श्रीमद्भगवद्गीता विवेचना समारोह में पधारे हुए ख्यातिलब्ध युवा धर्मगुरु महामहिम श्रीभागवतानंद गुरु जी ने आज व्याख्यान सत्र के अंतर्गत दूसरे दिन अपने उद्बोधन में धर्म के लक्षण एवं उनके महत्व पर प्रकाश डाला।
अपने प्रवचन में उन्होंने कहा कि धर्म के मुख्यतः दो आयाम हैं। एक है संस्कृति, जिसका संबंध बाहर से है। दूसरा है अध्यात्म, जिसका संबंध भीतर से है। धर्म का तत्व भीतर है, मत बाहर है। तत्व और मत दोनों का जोड़ धर्म है। तत्व के आधार पर मत का निर्धारण हो, तो धर्म की सही दिशा होती है। मत के आधार पर तत्व का निर्धारण हो, तो बात कुरूप हो जाती है।
मनु ने धर्म के दस लक्षण गिनाए हैं:
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।। (मनुस्मृति)
अर्थ – धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना उपकार करने वाले का भी उपकार करना ), दम (हमेशा संयम से धर्मं में लगे रहना ), अस्तेय (चोरी न करना ), शौच ( भीतर और बाहर की पवित्रता ), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना ), धी ( सत्कर्मो से बुद्धि को बढ़ाना ), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना ). सत्यम ( हमेशा सत्य का आचरण करना ) और अक्रोध ( क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना ) ।
याज्ञवल्क्य ने धर्म के नौ (9) लक्षण गिनाए हैं:
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
दानं दमो दया शान्ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्।।
(अहिंसा, सत्य, चोरी न करना (अस्तेय), शौच (स्वच्छता), इन्द्रिय-निग्रह (इन्द्रियों को वश में रखना), दान, संयम (दम), दया एवं शान्ति)
पद्मपुराण के अनुसार धर्म की निम्न परिभाषा है:-
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते।
दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ।।
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते।एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत्।।
(अर्थात ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन दस अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।)
पूज्यपाद महामहिम ने उपस्थित वैज्ञानिकों को सम्बोधित करते हुए बताया कि जिस नैतिक नियम को आजकल ‘गोल्डेन रूल’ या ‘एथिक ऑफ रेसिप्रोसिटी’ कहते हैं उसे भारत में प्राचीन काल से मान्यता है। सनातन धर्म में इसे ‘धर्मसर्वस्वम्” (=धर्म का सब कुछ) कहा गया है:
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।
(अर्थ: धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये।)
श्रीगुरुजी ने अपने व्याख्यान में आगे कहा कि धार्मिक ग्रंथों की शिक्षाओं और उसके चरित्रों को केवल उसके शाब्दिक अर्थों में नहीं लेना चाहिए। उसमें निहित भाव क्या हैं – इस पर ध्यान देना जरूरी है। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार दक्ष प्रजापति की सोलह कन्याएं हुईं । इनमें से तेरह को उन्होंने धर्म से ब्याह दिया। धर्म की पत्नियों के नाम पर गौर कीजिये: श्रद्धा,मैत्री,दया,शान्ति,तुष्टि,पुष्टि,क्रिया,उन्नति,बुद्धि, मेधा,तितिक्षा,ह्री(लज्जा) और मूर्ति।
धर्म ने इन तेरह पत्नियों से निम्न पुत्र उत्पन्न किये। श्रद्धा से शुभ, मैत्री से प्रसाद, दया से अभय, शान्ति से सुख, तुष्टि से मोद,पुष्टि से अहंकार,क्रिया से योग, उन्नति से दर्प, बुद्धि से अर्थ , मेधा से स्मृति, तितिक्षा से क्षेम, ह्री (लज्जा) से प्रश्रय (विनय) और मूर्ति से नर नारायण उत्पन्न हुए। जिस व्यक्ति में उपरोक्त तेरह गुण विद्यमान हैं ,वह धार्मिक कहा जा सकता है, केवल मंदिर में घंटियाँ बजाने वाला और उपवास आदि करने वाला नहीं। अहंकार और दर्प द्विस्वभावी हैं। कल्याणार्थ हों तो कल्याणकारी और स्वार्थरूप से हों तो विनाशकारी।
प्रवचनों का यह सत्र आगामी तीन दिनों तक चलेगा।ज्ञात हो कि महामहिम श्रीभागवतानंद गुरु जी पांच वर्ष की अवस्था से ही सनातन धर्म के गूढ़ विषयों पर प्रवचन के लिए प्रसिद्ध हैं।
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