नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को पश्चिम बंगाल के एक व्यक्ति को करीब 40 साल पहले हुई पत्नी की हत्या के आरोप से बरी कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केवल इकबालिया बयान के आधार पर उसकी दोषसिद्धि को बरकरार नहीं रखा जा सकता, क्योंकि यह कमजोर साक्ष्य है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालत से इतर अपराध की स्वीकारोक्ति संदिग्ध होती है। इससे विश्वसनीयता संदिग्ध हो जाती है और वह अपना महत्व खो देती है।
क्या है पूरा मामला ?
11 मार्च, 1983 को पश्चिम बंगाल के बर्दमान जिले में हत्या का यह मामला सामने आया था। ट्रायल कोर्ट ने 31 मार्च, 1987 को आरोपी निखिल चंद्र को उसकी पत्नी की हत्या के मामले में बरी कर दिया था।
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ट्रायल कोर्ट के फैसले के खिलाफ राज्य सरकार ने हाई कोर्ट का रुख किया। जिसके बाद कलकत्ता हाई कोर्ट ने दिसंबर, 2008 में निखिल चंद्र को दोषी ठहराया और आजीवन कारावास की सजा दी थी। निखिल चंद्र ने अपनी दोषसिद्धि और सजा के खिलाफ 2010 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी।
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश को किया रद्द
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में शुक्रवार को अपना फैसला सुनाया। जस्टिस बी. आर. गवई और जस्टिस संजय करोल की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि हाई कोर्ट के आदेश को रद्द किया जाता है।
उन्होंने कहा कि यह कानून का स्थापित सिद्धांत है कि संदेह कितना भी मजबूत क्यों न हो, वह सबूत का स्थान नहीं ले सकता है। इसी बीच पीठ ने कहा कि ट्रायल कोर्ट ने पाया कि अभियोजन पक्ष के गवाहों की गवाही विरोधाभासी थी और भरोसे के लायक नहीं थी।